Friday, July 13, 2007

हे बालक, जय प्रकाश मानस

मैने कुछ दिन पहले तुम्हें पत्र लिखा था। बालक, क्या तुमने उसे देखा। फिर माँ की बात का जबाब क्यों नहीं दिया तुमने। बस लगने लगा कि कहीं तुम्हारी तबियत न खराब हो गई हो। दुख स्वभाविक है।

कहीं पुरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिये तुम अपने आप को जुम्मेदार तो नहीं समझने लगे...? तुम्हारे होने या न होने से वहाँ बिल्कुल अंतर नहीं पड़ा है। ऐसा मुझे किसी सचमुच के साहित्यकार ने बताया। वो तुम्हारी तरह झूठा विलाप नहीं करता इसलिये सरकार उसे वहाँ ले गई है। किसी ने तुम्हें याद तक नहीं किया। कोई तुम्हें जानता तक नहीं। फिर क्यों दिल छोटा करते हो। तुम्हारी तो कोई पहचान ही नहीं है इस जगत में, जिसके लिये तुम परेशान हो। कहीं दोस्तों के चढ़ाये पेड़ पर तो नहीं बैठे हो...? बालक, पहले इस लायक काम करो कि पहचान हासिल हो। बिना कुछ किये हल्ला मचाते हो, दुख होता है।

माँ हुँ बालक, चिंता होती है!